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देवगाईं चर्च ऑफ़ नार्थ इंडिया मण्डली


आइये आज रांची रिंग रोड के बुशूर (जंहा जयपाल सिंग मुंडा का बुत लगा है ) से पश्चिम की ओर 3 से 4 किलोमीटर दुरी पर स्थित एक गांव देवगाईं के ख्रीस्तीय मण्डली के बारे में कुछ बातें बतलाऊँ।


घरों के संख्या के हिसाब से मिश्रित आबादी वाला यह गांव एक बड़ा गांव कहा जा सकता है। इसमें दो टोली हैं। नीचे टोली में नॉन ख्रिस्तियन लोगों का निवास है , ऊपर टोली में ख्रिस्तियन लोग रहते हैं। इन्ही ख्रिस्तियन लोगों से ही देवगाईं मण्डली बनती है। देवगाईं मण्डली चर्च ऑफ़ नार्थ इंडिया के टकरा हातुदामी पेरीस के अंतर्गत आती है।


इस गांव के देवगाईं नामकरण को लेकर बड़ा ही रोचक किंवदति प्रचलित है।


ऐसा कहा जाता है कि सदियों पहले गांव के पाहन को देवों के द्वारा स्वप्न में यह आदेश मिलता है कि गांव के छोर पर स्थित पहाड़ी में एक मंदिर का निर्माण किया जाय। मंदिर निर्माण में कोई अनोखी बात न थी किन्तु एक अनोखी शर्त यह थी कि इसका निर्माण सूर्यास्त के पश्चात शुरू कर दूसरे दिन के सूर्योदय तक संपन्न किया जाना।

सारी तैयारियां पूरी की गयी। पहाड़ी के पास एक तालाब की खुदाई की गई। मंदिर निर्माण के लिए लगने वाली सामग्री जुटाया गया। फिर एक दिन ठीक कर गांव वालों ने मंदिर निर्माण का शुभारंभ किया। जी जान से लोग काम में लगे थे कि मुर्गे ने बांग दिया अर्थात सूर्योदय होने की सूचना। अफ़सोस ! मंदिर निर्माण का काम सम्पूर्ण न हो सका।


ऐसी मान्यता है कि बाद में देवों ने वर्तमान के जगन्नाथपुर जहां रांची प्रसिद्ध रथ मेला लगता है उस स्थान को चुना और अपना मंदिर बनवाया। यदि मंदिर निर्माण कार्य सूर्योदय से पहले पूरा कर लिया जाता तो देव इस गांव में ही वास करते और जगन्नाथपुर के मंदिर के निर्माण की आवश्यकता न होती। यह भी हो सकता था कि वर्तमान में रांची का रथ मेला जगन्नाथपुर के स्थान में न होकर देवगाईं हो रहा होता।


अंग्रेजों का आगमन भारतवर्ष में व्यापार के लिए हुआ था। धीरे धीरे अंग्रेज पुरे भारतवर्ष में फ़ैल गए और यंहा अपना राज्य स्थापित किया।अंग्रेज शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा के साथ साथ अपने धर्म का प्रचार और प्रसार करते थे। रांची से ईसाई मिशनरी छोटा नागपुर के दूरस्थ जंगली इलाकों में जाया करते थे धर्म प्रचार करते , बपतिस्मा दिया करते और मसीही कलीसिया बनाया करते थे। इसी क्रम में मिशनरी देवगाईं भी गए। देवगाईं का प्रथम ख्रीस्त विश्वासी कोंका सिंग पाहन थे। जिन्होंने शुरुआती विरोध के बाद रांची जाकर ख्रीस्त को अपनाया और बपतिस्मा लिया। कोंका सिंग पाहन ने न केवल ईसाइयत अपनाई अपने पांच बेटों में से एक दाऊद दयाल सिंग को अभिषिक्त पुरोहित भी बनवाया। और इस तरह देवगाईं में मसीही कलीसिया की स्थापना हुई। जो कि एस.पी.जी मिशन टकरा हातुदामी ,रांची के अंतर्गत आता था। आज भी कोंका सिंग पाहन के वंशज एक खपरैल गिरजाघर में परमेश्वर की स्तुति आराधना करते हैं। कोंका सिंग पाहन के पूर्वज जब मुंडाओं में किली (SURNAME ) का बंटवारा हुआ था तो होरो किली (SURNAME ) को अपनाया।


कोंका सिंग पाहन के वंशज हमेशा परमेश्वर की सेवकाई को समर्पित रहे है। अभी तक हर पीढ़ी में परिवार से एक जन प्रभु की सेवकाई के लिए अर्पित रहा है।

1. लुम्बा (अमुस), 2 सुखराम (अमृतचरण ) 3 दाऊद दयाल सिंह 4 डेबा जोहान 5 बुदू शमूएल

दाऊद दयाल सिंह ने ही मुंडारी गीत संकलन सुरुद सलाकिद की रचना की है। वे देवगईं दूसरी पीढ़ी के ईसाईयों में से प्रथम पुरोहित हुए।

डेबा जोहन - के पुत्र मरकस सिंह होरो ने भी पुरोहित बनने का निर्णय लिया और एक अभिषिक्त पुरोहित बन विभिन्न मण्डली और पेरिस में अपनी सेवकाई दी। मरकस होरो कामडारा धर्मजिला के प्रथम भारतीय पुरोहित प्रभारी थे। उनकी समाधि स्थल रमतोलया में स्थित है। इस तरह से वे कोंका सिंग पाहन देवगाईं के वंशजो में से तीसरी पीढ़ी के पुरोहित हुए।

मरकस होरो के तीन पुत्रो जोहन , बोआस बिनय और पुत्रियों हीरामनि , जीरामनी और ख्रिस्टीना में से सबसे छोटे बेटे सत्यानंद थोमस होरो ने भी 1947 में मेट्रिक की परीछा हज़ारीबाग़ से करने के बाद पुरोहित बनने का निर्णय लिया। विभिन्न ग्रामीण मण्डलियों में सेवकाई का काम किया। उनका समाधि स्थल कामडारा में है।

मारकस होरो की बड़ी बेटी हीरामुनि ने भी अपना जीवन प्रभु को अर्पित कर दिया था। वह अविवाहित रहीं। संत\मार्गरेट स्कूल रांची में शिक्षिका का काम करती थी। वह शिक्षिका काम छोड़कर छोटानागपुर डाइसिस में प्रथम अभिसिक्त सिस्टर बनी। महामान्यवर बिशप स्वामी दिलबर हंस के साथ सुदूर ग्रामीण इलाकों में जाया करती थीं। महिलाओं और माताओं को संगठित करती थी। छोटानागपुर डाइसिस माता\समाज के गठन के अग्रणियों उनका नाम लिया जाता है। उन्होंने अपना अंतिम जीवन बोकारो में बिताया और 22 फ़रवरी 1999 को प्रभु में सो गई। वहीँ उनका कब्र है।

इस तरह कोंका सिंग पाहन के वंशज में से प्रभु की सेवकाई की यह चौथी पीढ़ी हुई।


डेबा जोहन के चार बेटों में से मरकस सिंह होरो, जसुवा, अब्राहम और दयाल के पोते भी वर्तमान में प्रभु की सेवकाई को अर्पित हैं।

मरकस के छोटे भाई जसुवा के बेटे जयपाल सिंग होरो जो कि मुरहू स्कूल में शिक्षक थे ने अपने बेटे अजित सिंग होरो को पुरोहित बनाने को अर्पित किया। अजित सिंग होरो फिलहाल टाटानगर पेरिस के प्रभारी हैं। प्रभु का संयोग है कि उनकी धर्मपत्नी श्रीमती लिली कच्छप भी एक अभिषिक्त महिला\पुरोहित हैं। वर्तमान में वह संत बरनाबास नर्सिंग कॉलेज हॉस्टल रांची की वार्डन हैं।


मरकस और जसुवा के छोटे भाई अब्राहम के बेटे नेल्सन वाशिगटन ने भी अपने बेटे अजित होरो को पुरोहित बनने को भेजा। वर्तमान में वे जमशेदपुर\पेरिस के अधीन बिरसानगर में पदस्थापित हैं।


अगस्त के महीने में देवगाईं जाने का अवसर प्राप्त हुवा। मैंने वहां देखा कि पुराने खपरैल गिरजाघर के पास एक नया गिरजाघर अधूरा बना पड़ा है। इस अधूरे निर्माण कार्य को पूरा करने का मटेरियल कॉस्ट का एस्टीमेट ( सीमेंट और लेबर कॉस्ट को छोड़ ) करीब करीब 1.88 लाख है। पेरिस प्रीस्ट टकरा हटुदामि द्वारा प्रेषित।

क्या हम कोंका सिंह पाहन के वंशज इस अधूरे गिरजाघर को पूरा बनाकर अपनी श्रद्धांजलि नहीं अर्पित कर सकते ?


यदि आप को सहयोग का हाथ बढ़ाना हो तो इन ब्यक्तियों से संपर्क करें ;-


पुनीत होरो - पुत्र मृत सत्यानंद थॉमस होरो पादरी। 9433099862 .

पादरी अजित सिंग होरो - 9304378595 .

पादरी अजित होरो - 9508362001 .












 
 
 

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